मुस्तज़र फ़ारूक़ी
कालाढूंगी। यूं तो हमारा देश आजाद हुए 70 साल पूरा करने को है, किंतु अक्सर जब हम जाति और धर्म के नाम पर राजनेताओं को वोट मांगते देखते हैं, तो मजबूर हो कर सोचना पड़ता है कि ‘असल आजादी’ से अभी कोसों दूर है हमारा देश! कहने को तो विकास की पॉलिटिक्स तमाम राजनीतिक पार्टियां करती हैं, बढ़-चढ़कर वादे करती हैं, दावे करती हैं किंतु जब चुनाव आते हैं तो सब कुछ भूल कर जाति और धर्म की तरफ मुड़ जाती है। जाति के नाम पर और धर्म के नाम पर उम्मीदवार भी तय किए जाते हैं और इतना ही नहीं, बल्कि एक जाति को दूसरे के प्रति भड़काकर, लड़ा कर अपना उल्लू सीधा किया जाता है। यह एक सच्चाई बन चुकी है, जिससे कोई भी विश्लेषक मुंह मोड़ कर अपना पीछा नहीं छुड़ा सकता है। हाल-फिलहाल उत्तराखंड प्रदेश के चुनाव होने हैं और यहां मुसलमान वोटर्स की इतनी बड़ी संख्या तो नही है, लगभग 5 फीसद और इस समुदाय का वोट हासिल करने के लिए तमाम राजनीतिक पार्टियां छिछली राजनीति पर उतर आई हैं। इस बात से किसी को ऐतराज नहीं होना चाहिए और शायद होता भी नहीं अगर कोई पार्टी मुसलमानों की समस्याएं दूर करना चाहती, उनका विकास करना चाहती, मुस्लिम समुदाय में तीन-तलाक जैसी प्रथा का महिलाओं के हित में सजग हल निकालना चाहती, किंतु नहीं यह सब तो हो नहीं रहा है! हो रही है तो बस ‘डर की राजनीति’! जितना मुस्लिम समुदाय को डरा लो ताकि उनका वोट एकमुश्त मिल जाए इस मामले में उत्तराखंड के दो प्रमुख राजनीतिक दल कांग्रेस पार्टी और भाजपा पार्टी सदा से प्रतिस्पर्धा करती रही हैं, तो इस बार उत्तराखंड आप पार्टी भी इस बार मुस्लिम वोट पर अपना दावा कर रही है।