


ब्यूरो रिपोर्ट कालाढूंगी
कालाढूंगी मंगलवार को आपको बताते चलें रमजान उल मुबारक का महीना बहुत जल्दी ही शुरू होने वाला है जिसको लेकर मुस्लिम समुदाय के लोगों में परेशानी बनी हुई है लेकिन हम आपको बताते चलें इस वक्त देश की स्थिति देखते हुए हालात देखते हुए हमें अपने आप को अपने वतन की हिफाजत के बारे में और लोगों की हिफाजत के बारे में भी सोचना होगा जान है तो जहान है इबादत के सबसे बड़े और पवित्र माह-ए-रमजान में पहली बार मस्जिदों में तरावीह नहीं होगी। कुरान इसकी अनुमति देती है। कुरान के अनुसार ऐसे हालात पैदा हों, तो घर पर तरावीह की जा सकती है। हदीस के अनुसार मोहम्मद साहब और उनकी पत्नी हजरत-ए-आयशा ने भी अकेले में तरावीह की नमाज अदा की। आपको बताते चलें कोराना संक्रमण से बचने के लिए रमजान में घरों में ही तेरा भी पढ़े और साथ ही सोशल डिस्टेंस का भी ख्याल रखें क्योंकि इसी में हमारी भलाई है जब तक हम सोशल डिस्टेंस का ख्याल नहीं रखेंगे तब तक कोरोना बीमारी हमारे घरों से बाहर नहीं जाएगी

अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी (एएमयू) के धर्मशास्त्र संकाय के सहायक प्राध्यापक डॉ. रेहान अख्तर के अनुसार हदीस की किताब अबू दाउद और अल सलात के भाग-1 में मोहम्मद साहब की पत्नी हजरत-ए- आयशा ने कहा है कि लोग रमजान में मस्जिद के अंदर अलग-अलग नमाज पढ़ा करते थे। तब मोहम्मद साहब ने मुझे हुक्म दिया कि तुम मेरे लिए भी अलग से चटाई बिछा दो। मोहम्मद साहब ने अलग नमाज पढ़ी। आज के संदर्भ में देखें तो कोरोना संक्रमण से बचने के लिए रमजान में घरों में अलग तरावीह की जा सकती है। आपदा में भीड़ में तरावीह जरूरी नहीं मानी जानी चाहिए। बुखारी शरीफ (मुस्लिम ग्रंथ) की किताबु सोम (रमजान की किताब)में जिक्र मिलता है कि मोहम्मद साहब ने तीन दिन घर में बगैर किसी को बताए तरावीह की नमाज पढ़ी।
फर्ज न हो जाए इसलिए चौथे दिन नहीं पढ़ी नमाज
मोहम्मद साहब ने लगातार चौथे दिन नमाज इसलिए नहीं पढ़ी कि कहीं तरावीह की नमाज फर्ज न हो जाए। इसलिए रमजान में तरावीह फर्ज नहीं। कुरान में कहा गया है कि अल्लाह का इरादा तुम्हारे साथ आसानी का है, सख्ती का नहीं।
मोहम्मद साहब की पत्नी हजरते आयशा माहे रमजान में पर्दे के पीछे नमाज अदा करती थीं। उनके गुलाम जकवान पर्दे के दूसरी ओर कुरान देखकर तरावीह पढ़ते थे। (हदीस की किताब इब्ने अबी सहबा-253) इसका मतलब ये है कि कुरान याद न होने पर घर में ही कुरान देखकर तरावीह पढ़ सकते हैं।
ऐसे बनी परंपरा
मोहम्मद साहब के साथियों ने टुकडिय़ों में रमजान के दिनों में नमाज पढऩी शुरू की थी। तब द्वितीय खलीफा हजरते उमर को लगा कि लोग बिखर न जाएं इसलिए उन्होंने हुक्म जारी किया कि सभी तरावीह की नमाज एक जगह एकत्रित होकर पढ़ेंगे। तब से परंपरा बन गई कि सभी लोग तरावीह की नमाज एक जगह पढ़ते आ रहे हैं। (संदर्भ : बुखारी शरीफ के भाग दो फजायल कयामे लेल
इस्लाम में हर चीज की गुंजाइश
जो सख्स इस महीने को पाए उसे रोजा रखना चाहिए। हां, अगर कोई बीमार हो, मुसाफिर है उसे दूसरे दिनों में रमजान पूरे करने चाहिए। अल्लाह का इरादा तुम्हारे साथ आसानी का है, सख्ती का नहीं है। इस्लाम ने किसी चीज की गुंजाइश दी है तो उस पर हर हाल में अमल होना चाहिए। (कुरान की सूरे बकरा आयत नंबर 185 व 184) आज के हालात ऐसे ही हैं जिस पर कुरान में कहा गया है।
रोजा की अहमियत
कुरान में फरमाया गया है कि ऐ ईमान वालो तुम पर रोजा फर्ज किए गए हैं। जिस तरह तुमसे पहले के लोगों पर फर्ज किए गए थे। उम्मीद है कि तुम में अल्लाह से डरने का गुण पैदा होगा। (कुरान के सूरे अलबकरा आयत नंबर-183)
क्या है तरावीह?
रमजान में मस्जिदों में इशा की नमाज के बाद तरावीह की जाती है। जिसमें आसपास के मोहल्ले के लोग शामिल होते हैं। हाफिज -ए- कुरान (जुबानी कुरान याद रखने वाले मौलाना) नमाज अदा कराते हैं।
ऐसे हालात में तरावीह कैसे करें
- रमजान की हर रात में क्षमता के अनुसार अकेले में रकातें पढ़ें।
-जमात से तरावीह पढऩे के दौरान शारीरिक दूरी के नियम का ख्याल घर में भी करें।
- सूरे फील से सूरे नास तक दस सूरतें हैं। जो पूरी कुरान नहीं पढ़ सकते वो तरावीह की बीस रकातों को हर सूरत में दो बार पढ़ें।
-जितना कुरान याद हो उतना तरावीह में पढ़ा जाए।
- मस्जिद में तरावीह में नहीं हो सकती तो देखकर पढ़ लें।
