रिपोर्ट,ज़ाकिर अंसारी संपादक कॉर्बेट बुलेटिन न्यूज़ हल्द्वानी
हल्द्वानी में सोमवार को बस्ती बचाओ संघर्ष समिति ने की प्रेस वार्ता, जिसमें रेलवे किनारे बसे लोगों के साथ हो रहे क्रम में अहम बैठक की जिसमें उन्होंने रेलवे से जुड़े मुद्दों पर बात की
उत्तराखण्ड उच्च न्यायालय द्वारा विगत 20 दिसम्बर को रवि शंकर जोशी की याचिका पर अंतिम निर्णय दे दिया।
- फैसले में भूमि के ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में गोरखा शासकों के कब्जे को माना गया है, उनसे ईस्ट इण्डिया कम्पनी की 1815 में नेपाली शासकों को हराकर 1816 में हुयी सांगुली संधि के तहत जमीन का मालिक माना है, कम्पनी से ब्रिटिश शासन को भूमि का मालिकाना स्वीकारा गया है, आजादी के बाद भारत सरकार को भूमि का हस्तांतरण स्वीकार किया गया है। सामंती और औपनिवेशिक शासकों को मालिक माना गया है पर आजाद भारत में नागरिक अधिकारों के आधार पर भूमि स्वामित्व को नहीं देखा गया है। जो लोग
- औपनिवेशिक काल से ही यहां रह रहे थे। भूमि पर फैसला लेते समय स्वामित्व विवाद वाली भूमि होने के स्थान पर रेलवे को स्वामी मानते हुए फैसला किया गया है। जबकि रेलवे ने भूमि अधिग्रहण / अर्जन के कोई दस्तावेज प्रस्तुत नहीं किये हैं। इसमें
- भूमि अधिग्रहण कानून, 1894 का कहीं जिक्र तक नहीं किया गया है। – यह निर्णय रेलवे को बिना कानूनी दस्तावेजों के भूमि का मालिक बनाता है। 1937-1940 की लीज लोगों के पास उपलब्ध है। जो कि रेलवे के 1959 के नक्शे, प्लान से पहले की है। यह तथ्य दिखाता है कि इस भूमि पर लोगों का दावा रेलवे की योजना से भी पुराना है।
- फैसले में बस्ती वासियों को भू-राजस्व कानून 1901 के तहत श्रेणी-12 के तहत माना गया है जबकि उसके बाद 1950 में बने ‘उत्तर प्रदेश जमींदारी उन्मूलन और भूमि सुधार कानून, 1950’ के तहत ग्रोव होल्डर श्रेणी-12 के बजाय जमीन का असली मालिक हो जाता है।
- फैसले में उत्तर प्रदेश जमींदारी उन्मूलन और भूमि सुधार कानून, 1950 के उक्त प्रावधानों को संज्ञान में लिया जाना चाहिए।-
- सारे लीज के मामले जिस पर पूरा निर्णय आधारित हैं वो लीज जमींदारी उन्मूलन और भूमि सुधार कानून, 1950 के तहत भूमि के प्रकार 14 से बदलकर 4 हो गये जिसमें ग्रोव होल्डर ( बाग धारक) का भूमि पर अधिकार “सिरदार” के तौर पर हो गया है,
- जिन्हें भूमि आवंटित हुयी या खुदकाश्त करने वाले, कब्जाकार ग्रोव होल्डर, आदि लोग “आसामी” के तौर पर लिये गये हैं, जिनका भूमि पर दावा बनता है। यह महत्वपूर्ण तथ्य पूरे मामले में आंखों से ओझल रहा है।
- फैसले में 1959 के रेलवे नक्शे, प्लान जो रेलवे की योजना का दस्तावेज है।को मालिकाने के दस्तावेज की तरह मान्यता दिया जाना क्या जायज़ लगता है ?
- पूरे फैसले में रेलवे भूमि पर दावे का क्षेत्रफल अंकित नहीं है, जो पूर्व में 29 एकड़ के रूप में चर्चा में आता था, यह आगे भी रेलवे को अपने दावे को और अधिक क्षेत्र तक बढ़ाने की मनमानी छूट देता है।
- फैसले में बस्ती वासियों के लीज, फ्री होल्ड को एकतरफा तौर पर गलत माना गया है।
- लीज देने वाली सरकारों जो पिछले 80-90 सालों से लीज को मान्यता दिये हुए हैं, पर इसकी कोई जवाबदेही तय नहीं की गयी है।
- निर्माण के लिए रेलवे से अनुमति न लेने को आधार बनाया जाना भी गलत है।
- फैसले में न्याय के सिद्धांतों के अतिरिक्त मानव अधिकारों, बाल अधिकारों, महिला अधिकारों सहित मानवीय मूल्यों को पूरी तरह नजरअंदाज किया गया है।
- पुनर्वास के लिए गयी याचिकाओं को न्यायालय ने यह कहते हुए सुनने से मना कर दिया कि पहले अतिक्रमण हटाया जाए, तब इस पर निर्णय होगा।
- -जबकि गफूर बस्ती, ढोलक बस्ती के सैकड़ों परिवारों को कहीं और भूमि आवंटित कर बसाने को लेकर शासन स्तर पर 2010 से लटकी प्रक्रिया के जिम्मेदार शासन-प्रशासन हैं न की गफूर बस्ती, ढोलक बस्ती वासी इस पहलू को संज्ञान में नहीं लिया गया है।
- यह समय जब सर्दी और अधिक बढ़नी है। बच्चे, बूढ़े, महिला, वयस्क सभी को बिना किसी पूर्व इंतजाम के खुले आसमान के नीचे धकेल देना लोगों की जान से खिलवाड़ करना, बेहद अमानवीय और हिंसक कदम होगा।
- ऐसे समय में जब कोरोना के मामले पुनः बढ़ रहे हैं और केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय सभी राज्य सरकारों – को एहतियात बरतने की सलाह दे रहा है, ऐसे में इतनी बड़ी आबादी को बेघर कर सड़क पर निकाल देना महामारी के बढ़ते खतरे के मद्देनजर घातक होगा।