अंजुम कादरी अपनी कलम से लिखती है।यूं तो हमारे देश के कानून ने मानसिक रोगियों को गरिमा से जीने का अधिकार दे दिया है लेकिन मंजिल अभी भी बहुत दूर है।
हमारे देश महान में किसी को भी मायूस नहीं रखा गया।
इसीलिए इतने सारे दिवस मनाए जाते हैं या यूं भी कह सकते हैं की विश्व में सबसे ज्यादा दिवस हमारे देश में ही मनाए जाते हैं।
इसीलिए 10 अक्टूबर को मानसिक स्वास्थ्य दिवस के रूप में मनाया जाता है और इसकी शुरुआत विश्व मानसिक स्वास्थ्य संघ ने 1992 में की थी और मकसद यह था कि समाज में मानसिक बीमारियों के प्रति जागरूकता फैलाना लेकिन यह योजना सिर्फ कागजों तक सिमट कर रह गई समाज में तो यह उतर ही नहीं पाई अफसोस देश में मनोचिकित्सकों की कमी से निजात दिलाने और मनो रोगियों की सुध लेने के लिए 1982 में पहली दफा राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य योजना की शुरुआत की गई थी इस योजना का मकसद भी कुछ इसी तरह का था जैसे मानसिक रोगियों को प्राथमिक स्तर पर सहायता मुहैया कराना 1987 में मेंटल हेल्थ एक्ट लाया गया जिसमें 1912 के लुनेसी एक्ट को खत्म कर दिया गया लेकिन अभी भी इन्हीं मशगलों से परेशान मर्द और औरतें गांव शहर या सुनसान सड़कों पर माजूर, मजबूर, बेसहारो ,के मानिंद बेसुध पड़े नज़र आते हैं।
हादसों से जूझते झेलते यह ज़हनी मरीज अपने गांव शहर कस्बों से दूर जाकर अनजान लोगों के बीच पागल का खिताब पाकर इधर से उधर भटकते नजर आते हैं।
अफसोस उन लोगों पर है जो अपने नफसी बहन,भाई, वालीदेन को इस तरह भटकने देते हैं जबकि सोशल वर्क आज सर चढ़कर बोल रहा है।
इस माहौल में भी वह अपने प्यारों का फीडबैक लेना पसंद नहीं करते इसीलिए सरकार से गुजारिश की जा रही है ऐसे लावारिस मानसिक रोगियों को
साइकैटरिस्ट ट्रीटमेंट देकर वृद्धाश्रम,नारी निकेतन ,दारुल उलूम जैसे स्थानों पर ज़िंदगी गुजारने का मौका दिया जाए हमें यह बिल्कुल नहीं भूलना चाहिए यह हादसा हमारे साथ भी हो सकता है कभी भी किसी का भी ज़हनी तवाज़न बिगड़ सकता है।
आले दर्जे के फेमस और अमीर एक्टर्स दीपिका पादुकोण और रितिक रोशन का भी ज़हनी तवाज़न बिगड़ चुका था।
इसलिए कहते हैं कि ज़रूरी नहीं कि ऐशओ अशाएश से कोई मेंटल डिस्टर्ब ना हो।
मनो चिकित्सकों की मानें तो आने वाले कुछ ही सालों में मानसिक रोगियों की बढ़ोतरी आले दर्जे तक होने वाली है।
यूं तो हमारे देश में संख्या के अधार पर लाखों एनजीओ है लेकिन सिर्फ स्वार्थ के बलबूते पर कार्य करते हैं और एक अच्छी खासी रकम गवर्नमेंट से वसूल करते हैं इसको कहते हैं इमोशनल अत्याचार जबकि हकीकत में एनजीओ कोई वर्क ही नहीं करते यदि वह वर्क करते तो देश का नक्शा कुछ और ही होता।
एक बार फिर मैं हुकूमत को उत्तराखंड 2017 की घटना से रूबरू कराते हुए चांदनी और पंकज की जीवनी पर थोड़ा सा ध्यान केंद्रित करना चाहती हूं इन मानसिक रोगियों को भी उपचार के नाम पर मेंटल हॉस्पिटल में इलेक्ट्रॉनिक हाई लेवल का शौक और जंजीरों से बांधकर अत्याचार किया गया जिसको न्यायालय ने रद्द करते हुए ना कि जंजीरों से आजादी दिलाई बल्कि परिवार को 50-50 हज़ार रुपए का अनुदान भी दीया और इन दोनों के इलाज में जो भी रकम खर्च आई गवर्नमेंट ने उसको अदा किया और 55 सो रुपए हर माह इन दोनों को बतौर ए सहायता प्रदान की गई।
भला इन सब को ध्यान में रखते हुए हुकूमत को जिम्मेदारी निभानी चाहिए क्योंकि आज के वक्त में हर गांव शहर के हर चौक पर एक दो ज़हनी मरीज़ देखने को मिलते हैं।
आए दिन नॉर्मल लड़कियों और लड़कों के साथ रेप जैसी घटनाएं हद दर्जा हो रही है सो ऐसे में उन खवातीनों के साथ भी हमबिस्तर जैसे मामलात होते है लेकिन।
मसले इसलिए शो नहीं होते क्योंकि उन खवातीनों का ज़हनी तवाजन बिगड़ा हुआ है यानी माइंडली सिचुएशन डिस्टर्ब है लिहाजा गुजारिश है हुकूमत से प्रशासन से की मानसिक रोगियों को तत्काल में चौराहों सुनसान सड़कों से उठाकर मेंटल हॉस्पिटल ले जाएं और उपचार के बाद उनके परिजनों तक भेजें यदि ऐसा मुमकिन ना हो तो बृद्धाश्रम और दारुल उलूम नारी निकेतन भेज दे जो पावर रखते हैं वह अपने पावर का इस्तेमाल करें और इंसानियत को भी जिंदा रखें भारत सरकार मानसिक रोग उपचार के लिए केंद्र स्थापित करें जिससे कि सिचुएशन को हैंडल किया जा सके मेंटल डिस्टर्ब कोई भी हो सकता है तो प्लीज हम सबकी जिम्मेदारी है कि हम सब उन बारिशों का भी सोचे जो सड़कों पर निवास करते हैं।