राइटर रेनू बिष्ट हल्द्वानी
दुनिया
दुनिया कैसा चक्र, जिंदगी कैसा नाता हैं
कुछ पल जीना,फिर चला जाना हैं
किसी की नहीं, ये दुनिया सबने जाना हैं
फिर भी लड़ता मानव,चाहता सब पाना हैं
दर-दर भटकती ,मोह-माया की काया हैं
कोई नहीं संतुष्ट, कहीं धुप कहीं छाया हैं
जाति -पात भेद यहाँ ,खुन से बस नाता हैं
नेताओं के पेट बड़े,कहीं अन्न का ना दाना हैं
लालसा से तर्प्त मानव,रोज भटकता जाता हैं
प्रेम की भाषा जाने,फिर भी बोले तीखी भाषा हैं
मतलब से चलता यहाँ,भाईचारे का नाता हैं
एक-दुसरे को नीचा दिखा,सर्वश्रेष्ठ खुद को माना हैं
मरने से पहले कद्र ना कोई,बाद में गुण गाया जाता हैं
दुनिया का ये खेल निराला,मैंने इसको जाना हैं
दुनिया कैसा चक्र,जिंदगी कैसा नाता हैं।

