


रिपोर्ट :मोहम्मद उस्मान अंसारी


उस्मान अंसारी की कलम से निकलते अलफ़ाज़…
उत्तराखंड ; पत्रकार एक ऐसा ओहदेदार है जिसका नाम सुनकर ऐसा लगता है कि इसका वजूद किसी नेता या अधिकारी से कम नही, जिसकी बात की अनदेखी कही भी नही की जाती होगी। आम इंसान पत्रकार को न जाने क्या कुछ समझ बैठता है, मज़लूम व पीड़ित खुद इंसाफ पाने के लिए पत्रकारों को तलाश करता है मगर हकीकत पर गौर किया जाए तो कुछ ओर ही नज़र आता है। पत्रकारो को पुलिस या नेता द्वारा धमकाना या अपमानित करना कोई नई बात नही, बल्कि ऐसा काफी सालो से देखा और सुना जा रहा है। कही पत्रकार को थाने बुलाकर कोतवाल हड़काता है तो कही दवा व्यापारियों द्वारा पत्रकार को पीटा जाता है और पुलिस उसकी नही सुनती। इसके अलावा भी न जाने कितने मामले सामने आते रहते है। पिछले दिनों एक पत्रकार की हिमायत में शामली में पूरा मीडिया संगठन धरने पर बैठा मगर उसका कुछ खास असर नज़र नही आया था। कोई मीडिया संगठनों में गुहार लगाता है तो कोई अधिकारियों से इंसाफ की मांग करता है। बहरहाल पत्रकार भी (जो दूसरों को इंसाफ दिलाने की बात करता है) पीड़ितों की कतार में खड़ा नज़र आता है। कुछ लोग इसे आपस मे पत्रकारो में एकता न होने का कारण मानते है, मगर मेरी सोच इससे अलग है। अधिकारियों से जान पहचान बढाकर उनकी जी हुजूरी में लग जाना पत्रकारिता की बर्बादी का सबसे बड़ा कारण है। पहचान अपनी कलम से हो तो अलग बात है, मगर चापलूसी के बलबूते पहचान बनाकर खुद को अधिकारी की नज़र में पत्रकार दर्शाना ही पत्रकारिता का स्तर गिरा रहा है। पत्रकार अपनी कलम से अपने वजूद का अहसास कराता है। इसमे कोई शक नही कि कलम किसी तलवार से कम नहीं, बशर्ते उसे चलाने वाला चाहिए। पत्रकारों को अपने इंसाफ के लिए दरबदर न तो ठोकरे खाने की जरूरत है न ही किसी संगठन के सामने गिड़गिड़ाने की, बल्कि उसे बेखौफ होकर कलम चलाने की जरूरत है। आज लिखने के न जाने कितने माध्यम है। उस दौर को याद करिए जब सिर्फ एक कागज पर ही अपने दिल की बात उतारी जा सकती थी। जितने माध्यम पत्रकारों के पास अब है, इस हिसाब से पत्रकारों को पहले से कई गुना ज्यादा मज़बूत हो जाना था, मग़र ऐसा न होने की वजह सिर्फ एक है। पत्रकारों ने कलम को सही ढंग से चलाना ही छोड़ दिया, बल्कि जो चलाते है उन्हें या तो पागल या फिर बिन बात लकड़ी लेने वाला सरफिरा कहा जाता है, क्योकि ऐसे सरफिरे पत्रकार चुनिंदा बचे है। पत्रकारों में खौफ ने जन्म ले लिया है। पत्रकार पावर के सामने नतमस्तक नज़र आता है, किसकी हिम्मत है, कोई पत्रकार को आंख उठाकर भी देख ले, अगर निष्पक्ष व बेखौफ होकर कलम चलाने की ठान ली जाए। कौन दूध का धुला है, खामिया हर किसी मे है, नाकामी ढूंढो और लिखने की हिम्मत पैदा करो, न तो संगठनों की जरूरत पड़ेगी और न ही किसी के सामने गिड़गिड़ाने की। जो दूसरों को इंसाफ दिलाने के लिए कलम चलाता हो, उसे अपने मान-सम्मान के लिए न तो भीड़ जुटाने की जरूरत है और न ही धरना देने की, बल्कि बस कलम ईमानदारी से चलाने की जरूरत है। यकीन दिलाता हूँ, कभी भी खुद को दबा हुआ महसूस नही करोगे। डर और पहचान बनाने की चाहत दिल से निकालनी होगी, यकीनन बिना मिले किसी से खुद पहचान बन जाएगी। मैंने हिम्मत नही हारी, क्योकि किसी के साथ होने या न होने से फर्क नही पड़ता, बस ऊपर वाला साथ चहिये। किसी की जरूरत नहीं। मौत एक बार आएगी, डरोगे तब भी, नही डरोगे तब भी। फिर डर कैसा, खौफ कैसा। आजकल तो मैगज़ीन्स भी अधिकारियों की तारीफ में छपी हुई नजर आती है।
सच्चाई कड़वी होती है लेकिन सच यही है
