रिपोर्टर-मुस्तजर फारूकी
हल्द्वानी की यह तस्वीर जो एक कचरा बिनने बालो दो बच्चो की हैं जहां कचरा बिनते समय एक पोलोथिन में बचा कचरे से दाल चावल की पॉलिथिन उठाकर भूख की सिद्दत पेट के लिए कुछ भी नही देखती यह तस्वीर में दो छोटे बच्चे कचरे से पॉलिथिन उठाकर जिसमे दाल चावल खाना खाते दिख रहे हैं। यह तस्वीर हल्द्वानी के मछली मार्किट की हैं।
गरीबी भूख है और उस अवस्था में जुड़ी हुई है निरन्तरता। यानी सतत् भूख की स्थिति का बने रहना। गरीबी है एक उचित रहवास का अभाव, गरीबी है बीमार होने पर स्वास्थ्य सुविधा का लाभ ले पाने में असक्षम होना, विद्यालय न जा पाना और पढ़ न पाना। गरीबी है आजीविका के साधनों का अभाव और दिन में दोनों समय भोजन न मिल पाना। छोटे-बच्चों की कुपोषण के कारण होने वाली मौतें गरीबी का वीभत्स प्रमाण है और सामाजिक परिप्रेक्ष्य में शक्तिहीनता, राजनैतिक व्यवस्था में प्रतिनिधित्व न होना और अवसरों का अभाव गरीबी की परिभाषा का आधार तैयार करते हैं। मूलत: सामाजिक और राजनैतिक असमानता, आर्थिक असमता का कारण बनती है। जब तक किसी व्यक्ति, परिवार, समूह या समुदाय को व्यवस्था में हिस्सेदारी नहीं मिलती है तब तक वह शनै:-शनै: विपन्नता की दिशा में अग्रसर होता जाता है। यही वह प्रक्रिया है जिसमें वह शोषण का शिकार होता है, क्षमता का विकास न होने के कारण विकल्पों के चुनाव की व्यवस्था से बाहर हो जाता है, उसके आजीविका के साधन कम होते हैं तो वह सामाजिक और राजनैतिक व्यवस्था में निष्क्रिय हो जाता है और निर्धनता की स्थिति में पहुंच जाता है।
शहरी और कस्बाई क्षेत्रों में बड़ी संख्या में महिलायें और बच्चे कचरा बीनने और कबाड़े का काम करते हैं। यह काम भी न केवल अपने आप में जोखिम भरा और अपमानजनक है बल्कि इस क्षेत्र में कार्य करने वालों का आर्थिक और शारीरिक शोषण भी बहुत होता है। विकलांग और शारीरिक रूप से अक्षम व्यक्तियों के समक्ष सदैव दोहरा संकट रहा है। जहां एक ओर वे स्वयं आय अर्जन कर पाने में सक्षम नहीं होते हैं वहीं दूसरी ओर परिवार और समाज में उन्हें उपेक्षित रखा जाता है। कई लोग गरीबी के उस चरम स्तर पर जीवनयापन कर रहे हैं जहां उन्हें खाने में धान का भूसा, रेशम अथवा कपास के फल से बनी रोटी, पेंज, तेन्दुफल, जंगली कंद, पतला दलिया और जंगली वनस्पतियों का उपयोग करना पड़ रहा है।
गरीबी को स्वीकारने की जरूरत
वर्तमान संदर्भों में गरीबी को आंकना भी एक नई चुनौती है क्योंकि लोक नियंत्रण आधारित संसाधन लगातार कम हो रहे हैं और राज्य व्यवस्था इस विषय को तकनीकी परिभाषा के आधार पर समझना चाहती है। संसाधनों के मामले में उसका विश्वास केन्द्रीकृत व्यवस्था मंच ज्यादा है इसीलिए उनकी नीतियाँ मशीनीकृत आधुनिक विकास को बढ़ावा देती हैं, औद्योगिकीकरण उनका प्राथमिक लक्ष्य है, बजट में वे जीवनरक्षक दवाओं के दाम बढ़ा कर विलासिता की वस्तुओं के दाम कम करने में विश्वास रखते हैं, किसी गरीब के पास आंखें रहें न रहें परन्तु घर में रंगीन टीवी की उपलब्धता सुनिश्चित करने में सरकार पूरी तरह से जुटी हुई है। हमारे सामने हर वर्ष नित नये आंकड़े और सूचीबद्ध लक्ष्य रखे जाते हैं, व्यवस्था में हर चीज को, हर अवस्था को आंकड़ों में मापा जा सकता है, हर जरूरत को प्रतिशत में पूरा किया जा सकता है और इसी के आधार पर गरीबी को भी मापने के मापदण्ड तय किये गये हैं। ऐसा नहीं है कि गरीबी को मिटाना संभव नहीं है परन्तु वास्तविकता यह है गरीबी को मिटाने की इच्छा कहीं नहीं है। गरीबी का बने रहना समाज की जरूरत है, व्यवस्था की मजबूरी है और सबसे अहम बात यह है कि वह एक मुद्दा है। प्रो.एम.रीन का उल्लेख करते हुये अमर्त्य सेन लिखते हैं कि ”लोगों को इतना गरीब नहीं होने देना चाहिये कि उनसे घिन आने लगे, या वे समाज को नुकसान पहुंचानें लगें। इस नजरिये में गरीबों के कष्ट और दुखों का नहीं बल्कि समाज की असुविधाओं और लागतों का महत्व अधिक प्रतीत होता है। गरीबी की समस्या उसी सीमा तक चिंतनीय है जहां तक कि उसके कारण, जो गरीब नहीं हो, उन्हें भी समस्यायें भुगतनी पड़ती है।”